पर्यावरण संरक्षण का रामबाण महिलाओं के पास है (महिला दिवस 8 मार्च)



Updated: March 8, 2021 12:34

डा. मीना कुमारी बता रही हैं सरकार करोड़ों-अरबों रुपए इस संदेश को फैलाने में खर्च करती है कि ‘पानी बचाओ, प्रकृति बचाओ’। इन सबके लिए रामबाण तो हमारे समाज की महिलाएं हैं

भारतीय समाज के निर्माण में महिलाओं की महत्ती भूमिका रही है। यहां की महिलाओं ने घर, परिवार, समाज एवं राजकीय कार्यों में भी अपनी एक विशेष पहचान दर्ज करवाई है, वही सबसे ज्यादा योगदान इनका कला व संस्कृति के क्षेत्र में रहा है। कला एवं संस्कृति के इन कार्यों में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से जल तथा पर्यावरण संरक्षण के क्षेत्र में भी इनका महत्वपूर्ण योगदान रहा है।
दिन की शुरुआत नए सवेरे के साथ और 21वीं सदी की महिला के दिन की शुरुआत फेसबुक व वाट्सअप पर स्टेटस अपडेट करने से होती है। इस इन्टरनेट के जाल ने न केवल महिलाओं को अपितु बच्चे से लेकर वृद्ध तक को अपने व्यूहचक्र में फंसा लिया है। हम बात कर रहे है समाज के उस वर्ग की जिनकी भूमिका से ही समाज उन्नति के पथ पर अग्रसर हुआ है, यह वर्ग है, महिलाओं का वर्ग। महिला अपने आचार-व्यवहार से न केवल अपने परिवार को प्रभावित करती है बल्कि देश और काल को भी प्रभावित करती रही है। जिस सोच-समझ का महिला चिंतन करती है उसी के अनुरूप समाज की सोच हो जाती है।
आज के इस भौतिकवादी युग में पर्यावरण एवं जल संरक्षण के लिए किसी के लिए सोचने-समझने के लिए समय कहाँ है? अब स्मरण करते है आज से सात-आठ दशक पहले की महिला की, जिनके बारे में हम अपनी दादी-नानी से भी सुनते हैं। उस समय की महिला के दिन की शुरुआत ही पर्यावरण एवं जल संरक्षण से होती थी। हाँ, ये जरूर था कि वो इस आधुनिक शब्द – पर्यावरण एवं जल संरक्षण का अर्थ आज के संदर्भ की तरह नहीं समझती थी। फिर भी उनके धर्म-कर्म में पर्यावरण एवं जल संरक्षण के कार्य प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से समाहित थे।
जल को देवतुल्य समझकर अमृत की तरह काम में लिया जाता था। घर-गृहस्थी की सार-सम्भाल के साथ साथ महिलाओं द्वारा अपनाये गए विभिन्न आयाम थे जिससे मरुस्थल के क्षेत्र में जल की कमी के बावजूद जल प्रबंधन शत-प्रतिशत था। महिलाओं द्वारा सभी शुभ-अशुभ अवसरों पर किये जाने वाले अनुष्ठान में जल की आवश्यकता और महत्ता को ध्यान में रखते हुए इसके संरक्षण हेतु भरसक प्रयत्न्न किये जाते थे। प्राचीन काल से लेकर वर्तमान तक महिलाओं के बारे में विभिन्न जानकारी हमें अभिलेखों, शिलालेखों, पाण्डुलिपियों एवं साहित्य से मिलती है। इन्ही स्रोतों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि राजगृह में रहने वाली महिलाओं के अतिरिक्त जनसामान्य वर्ग की महिलाओं ने भी जल एवं पर्यावरण संरक्षण हेतु अनेक उद्योग किये थे। इनकी झलक यहां महिलाओं द्वारा किये जाने वाले प्रत्येक कार्यों में मिलती है, जिनमें विभिन्न निर्माण कार्यों, चित्रकला, मेहँदी, मांडना, कढ़ाई-बुनाई, लोकगीत-संगीत प्रमुख थे। राजस्थान के संदर्भ में देखे तो यहां के सैंकड़ों जलाशय इस वर्ग द्वारा निर्मित किये हुए है और जलाशयों के साथ-साथ यहां बाग-बगीचे एवं बाड़ियाँ भी निर्मित की गई थी, जिनमें इतिहास के क्रम से देखे तो यहां का प्राचीनतम जलाशय लाहिनी बाव है, जिसका निर्माण 11वीं शताब्दी में परमार पूर्णपाल की छोटी बहन व विग्रहराज की पत्नी लाहिनी ने करवाया था। इसके अतिरिक्त घोसुण्डी की बावड़ी, विरुपरी बावड़ी, नौलखा बावड़ी, रानीसर तालाब, गुलाब सागर, रावटी का तालाब, कोडमदेसर, बांदीकुई, एवं सेठानी का जोहड़ा इत्यादि महिलाओं द्वारा निर्मित जल-स्त्रोत है। इसी क्रम में यहां की नारी का प्रकृति से घनिष्ठ संबन्ध रहा है। इस प्रकृति प्रेम को विभिन्न बाग-बगीचों के रूप में देख सकते हैं, जो आज भी विश्व प्रसिद्ध हैं, जिनमें सिसोदिया रानी का बाग, केसर बडारण का रामबाग, रूपा बडारण का बाग, मांजी का बाग एवं राई का बाग मुख्य है।
महिलाओं के द्वारा किये गए इन कार्यों से न केवल समाज को जल समस्या से निजात मिलती थी अपितु उनके समाज की भावी भावी पीढ़ी भी इस पारम्परिक रीति-रिवाजों का अनुसरण करती थी। वहीं आज के इस मल्टी-मीडिया के युग में नारी इन धार्मिक-सामाजिक कार्यों को भूल सी गई है। उनके पास समय ही नहीं होता कि वो इस ताम-झाम की दुनियाँ से बाहर निकलकर अपने समाज-संस्कृति के लिए कुछ कर सके, और इसी नक्शेकदम पर बच्चे आगे बढ़ रहे है।
सरकार करोड़ों-अरबों रुपए इस संदेश को फैलाने में खर्च करती है कि ‘पानी बचाओ, प्रकृति बचाओ’। इन सबके लिए रामबाण तो हमारे समाज की महिलाऐं हैं क्योंकि औरत बच्चे की प्रथम गुरु होती है और यदि यही गुरु बच्चों में पर्यावरण एवं जल संरक्षण को उनके संस्कारों में शामिल करे तो न केवल आज की इस समस्या-जलाभाव से निपटा जा सकता है बल्कि वहीं हम आने वाली पीढ़ियों के लिए एक सुरक्षित भविष्य का निर्माण भी कर सकते है। इसलिए 21वीं सदी की महिला को इस आधुनिकीकरण के साथ-साथ उन पारम्परिक आदर्शों को अपनाना चाहिए जो वर्तमान के साथ भविष्य की भी जरूरत है।

(लेखिका जल संरक्षण से जुड़े मामलों पर शोध व लेखन करती हैं। आलेख में व्यक्त विचार निजी हैं।)

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