वाजपेयी, जिन्ना और कम्युनिस्ट: समय की कसौटी पर वैचारिक विमर्श(25 दिसंबर)



Updated: December 25, 2020 10:03

 

Sh. Atal Bihari Vajpayee.Photo Source:organiser.org

अरूण आनंद बता रहे हैं कि विचारधाराओं के संघर्ष के संदर्भ में एक महत्वपूर्ण तिथि है। इसी दिन जिन्ना,वाजपेयी व भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी का जन्म हुआ जो अलग—अलग विचारधाराओं का प्रतिनिधत्व करते हैं।
25 दिसंबर का दिन वैचारिक विमर्श की दृष्टि से बड़ा दिलचस्प दिन है। इस दिन तीन महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं। पहली, 1876 में इसी दिन मोहम्मद अली जिन्ना का जन्म कराची में हुआ जो उस समय भारत का हिस्सा था और जिन्ना के द्विराष्ट्र के सिद्धांत के कारण पाकिस्तान में है।
दूसरी,1924 में इसी दिन अटल बिहारी वाजपेयी का जन्म ग्वालियर में हुआ। ग्वालियर अब मध्य प्रदेश का हिस्सा है। वाजपेयी पहले 1940 के दशक में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक बने, उसके उपरांत 1950 के दशक में राजनीति में प्रवेश कर भारतीय जनसंघ का हिस्सा बने। बाद में 1990 के दशक में वह तीन बार इस देश के प्रधानमंत्री बने। पहले दो कार्यकाल तो बहुत छोटे और अधूरे थे पर तीसरा कार्यकाल उन्होंने पूरा किया। राष्ट्रीय विचारधारा का प्रतिनिधत्व करने वाले वाजपेयी भारतीय जनता पार्टी के पहले ऐसे नेता था जो प्रधानमंत्री पद पर पहुंचे।

तीसरा महत्वपूर्ण घटना थी 1925 में भारत की पहली कम्युनिस्ट पार्टी की विधिवत् स्थापना। हम सभी जानते हैं 1990 तक वामपंथी विचारधारा का देश की राजनीति में खासा प्रभाव रहा। कई राज्यों में उसकी सरकारें भी आईं व केंद्र में भी वह 1990 के दशक में तथा बाद में यूपीए के पहले कार्यकाल में 2004 से 2009 तक सत्ताधरी गठबंधन का हिस्सा रहे। महत्वपूर्ण बात यह है कि देश के शिक्षण संस्थानों, मीडिया जगत और विमर्श खड़ा करने वाले प्रत्येक संस्थान, संगठन व गतिविधि पर बाकायदा योजनाबद्ध ढंग से एक माफिया की तरहं उन्होंने कब्जा किया।

25 दिसंबर को विचारधाराओं के संघर्ष के संदर्भ में देखना दिलचस्प होगा। जिन्ना,वाजपेयी व भारतीय कम्युनिस्ट तीनों अलग अलग विचारधाराओं का प्रतिनिधत्व करते हैं। समय सभी विचारधाराओं को अपनी कसौटी पर कसता है। जिनमें शाश्वत तत्व होते हैं वे विचारधाराएं बची ही नहीं रहतीं बल्कि उनके प्रभाव के दायरे का विस्तार भी होता है, जो विचारधाराएं मानव के मूल स्वभाव के प्रतिकूल हैं तथा जबरन समाजों के गले के नीचे उतारी जाती हैं, वे कुछ समय के बाद क्षीण हो जाती हैं और उनका स्वरूप और भी विकृत तथा समाज विरोधी हो जाता है।

तो आईए देखते हैं कि जिन्ना,वाजपेयी व वामपंथी जिन विचारधाराओं का प्रतिनिधित्व करते थे, अंतत: उनका क्या हुआ? सबसे पहले जिन्ना की बात। जिन्ना ने जबरन द्विराष्ट्र के सिद्धांत के आधार पर भारत का बंटवारा करवाया। 1971 में उसके टुकड़े हुए, बांग्लादेश बना और द्विराष्ट्र के सिद्धांत के ताबूत में यह आखिरी कील था।पाकिस्तान बन तो गया पर कभी घुटने के बल भी चल न सका। आज पाकिस्तान की हालत देखिए। वह एक ‘असफल राष्ट्र’ है, आतंकवाद का केंद्र है, सेना के हाथ में सत्ता की सारी चाबियां हैं, बाकी सभी नेता बौने और कठपुतलियां हैं। सिंध और बलूचिस्तान कभी भी टूट कर अलग हो सकते हैं। पाकिस्तान के कब्जे वाले कश्मीर में बगावत के हालात हैं और पाकिस्तान मानों खुद को चीन के पास पूरी तरहं गिरवी रख चुका है।

वामपंथियों की बात करें तो भारतीय राजनीति में वे लंबे समय से हाशिए पर हैं। केवल केरल में उनकी सरकार है। वे लगातार सिमट रहे हैं। 1960 के दशक से वामपंथ की पोल खुलनी शुरू हुई। वैसे तो 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन सहित स्वतंत्रता संग्राम के सभी प्रमुख आंदोलनों में वह अंग्रेजों के पक्ष में खड़े नजर आए। 1962 में चीन के भारत पर आक्रमण के समय चीन का साथ दिया। साठ के दशक में इसका विकृत रूप नक्सलवाद के तौर पर उभरा जो आज भी देश के लिए नासूर बना हुआ है। 1975 से 1977 तक आपातकाल के 19 महीनों में लोकतंत्र का गला घोंटने वाली कांग्रेस का साथ दिया। 1989 से लेकर 2009 तक बेपेंदी के लोटे की तरहं कभी किसी के साथ गठजोड़ किया, कभी किसी के साथ ताकि सरकार में बने रहें। कुल मिलाकर राजनीति में जनता द्वारा पूरी तरहं नकार दिए गए। सामाजिक क्षेत्र में एनजीओ कल्चर के माध्यम से तथा शिक्षण संस्थानों पर कब्जा जमा कर अरबों रूपयों की फंडिग ली और उससे एक विमर्श खड़ा किया कि भारत कभी एक राष्ट्र नहीं था और न होगा। देश के इतिहास को तोड़ा—मरोड़ा, राष्ट्रीय विचारों को सांप्रदायिक बताया और राष्ट्रीय विचारकों व संगठनों के खिलाफ अनवरत अभियान चलाया। जब जनता ने उन्हें हर क्षेत्र में अस्वीकार कर दिया तो अराजकता पैदा करने के लिए आज वे विदेशी मीडिया व कुछ चुनिंदा विदेशी संस्थाओं व अकाद्मिक संस्थानों के माध्यम से प्रोपगैंडा कर रहे हैं। कुल मिलाकर वे हाशिए पर हैं और अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं।

अब बात उस विचारधारा की जिसके प्रतिनिधि वाजपेयी थे। इसे आप राष्ट्रीय विचारधारा भी कह सकते हैं। यह विचारधारा भारत के अस्तित्व और कर्तृत्व को एक अबाध, अनवरत राष्ट्रीय प्रवाह के रूप में देखती है और ‘वसुधैव कुटम्बकम’ का भाव उसका मूल आधार है। इस विचारधारा का व्यापक विस्तार हुआ है। राजनीतिक क्षेत्र में केंद्र व ज्यादातर राज्यों में भाजपा को लगातार मिल रहा भारी बहुमत एक संकेत मात्र है। राष्ट्रीय विचारों को राष्ट्र जीवन के केंद्र में लाने के लिए प्रतिबद्ध सामाजिक—सांस्कृतिक संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ का तेजी से होता विस्तार और समाज में उसकी बढ़ती स्वीकार्यता इस विचारधारा के प्रभाव के विस्तार का प्रमाण है। देश के हर कोने में संघ के स्वयंसेवक ‘मैं नहीं, तू ही’ के भाव से राष्ट्र के लिए निस्वार्थ भाव से अपना योगदान देते मिल जाएंगे। यहां तक कि कोविड—19 के काल में भी संघ से जुड़ने वालों की तादाद में 25 से 30 फीसदी इजाफा हुआ है। तीन दर्जन से अधिक संगठन संघ से प्रेरणा लेकर काम कर रहे हैं। विदेशों में बसे भारतीय भी बड़ी संख्या में अब भारत के पक्ष में दुनिया के हर मंच पर गर्व के साथ अपना पक्ष मुखरता से रख रहे हैं। एक आत्मविश्वासी भारत का उदय हो रहा है तो उसका आधार यह राष्ट्रीय विचारधारा ही है। इसका व्यापक विस्तार और विस्तार की तेज गति इस बात का साक्ष्य है कि हमारे राष्ट्र रूपी प्रवाह के मूल तत्वों को यह अपने में समेटे है और भविष्य उज्जवल है।

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