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अतुल जैन बता रहे हैं कि कोविड के इस दौर में असली चुनौती हमारी संवेदनशीलता को है और इसका समाधान किसी वैक्सीन से नहीं होगा, न ही अमेरिका और रूस इसमें हमारी कुछ मदद कर पाएंगे, इसका समाधान तो समाज और स्वंय को ही खोजना होगा।
आज वो घंटी फिर बजी. इस बार मुझे कोई गफलत नहीं थी. ये घंटी वही बचपन में आने वाले कुल्फी वाले की थी. फिर भी मैंने खिड़की से बाहर झांका तो वो 25 साल का नौजवान अपने ठेले पर लगी घंटी बजा रहा था. बड़ी हसरत से देख रहा था कि कोई तो आए. लगभग 15 मिनट ठहरने के बाद निराश होकर वहां से आगे चला गया. घंटी की आवाज भी मंद पड़ने लगी थी. मैं भी मन मसोस कर रह गया. कोरोना के कारण घर के एक कमरे में बंद था. परिवार के बाकी लोग भी क्वारंटीन के कारण बाहर नहीं निकल रहे थे.
चार दिन पहले भी जब यही घंटी बजी थी तब दोपहर में नींद आ रही थी. पहचानी सी लगी. पहले तो लगा कि बचपन का कोई सपना देखा होगा. थकान थी, इसलिए फिर से सोने की कोशिश की. लेकिन वो घंटी फिर बज गई. वही कुल्फी वाला था. उस दिन भी बेचारा बैरंग लौट गया था.
यह तो ठीक है कि इस समय मैं कोरोना के कारण लाचार था. लेकिन अगर ऐसा नहीं होता तो क्या मैं उससे कुल्फी खरीदता? यह प्रश्न मुझे कुरेदने लगा. पता नहीं, सफाई से बनाता होगा कि नहीं. कही पुरानी तो नहीं होगी. दूध खालिस होगा कि नहीं. मैं इसी उधेड़बुन में था. फिर मेरे मन में एक और प्रश्न उठा कि क्या मैंने कभी क्वालिटी, अमूल या ज्ञानी की कुल्फी खाते समय स्वयं से यह प्रश्न पूछा है. अखबारों में बड़े-बड़े ब्रांड की चीज़ों को लेकर भी तो बहुत सी खबरें आती रहती हैं.
अभी अगस्त में ही दही का एक पैकेट खरीदा था – बड़े ब्रांड का प्रोबायोटिक. पैकेजिंग की तिथि सितंबर की डली हुई थी. यों भी दूर-दूर से टैंकरों में भर कर आने वाला दूध कितना ताज़ा होता होगा, इसकी कभी हमने सच्चाई की तह में जाने की कोशिश ही नहीं की. शादय, छह महीने पहले डीहाइड्रेट (सुखाकर) कर रखे गए एसएमपी (स्किम्ड मिल्क पाउडर) से बनाया जाता है. नाम होता है – ताज़ा. इंडिया गेट की लॉन्स में खड़े हजारों आइसक्रीम वालों की रोजाना लाखों रुपए की आइसक्रीम बिकती है. कभी ध्यान दिया हो तो पता चलता है कि छह महीने पहले पैक की गई थी. लेकिन अपने घंटी वाले कुल्फी वाले की छह दिन पुरानी कुल्फी की ताजगी पर हम शक होने लगता है.
छह महीने पहले जब से इस कोरोना वायरस ने अपना जाल बिछाया, मैं लगातार सक्रिय था. फील्ड में था. सारी सावधानी बरतते हुए लोगों से मिल जुल रहा था. मास्क दमघोंटू था, लेकिन फिर भी कोई कोताही नहीं बरती मैंने. पर्याप्त शारीरिक दूरी बनाए रखी. लेकिन सोशल डिस्टैंसिंग नहीं हो पा रही थी. सोशल सैक्टर में काम करते हुए यही सबसे मुश्किल काम था. सफाई का पहले से ही बहुत शौक था, इसलिए पर्सनल हाईजीन रखना कोई मुश्किल काम नहीं था. लोग पोषण फ्रीक के नाम से पुकारते हैं, इसलिए विश्वास यह था कि इम्युनिटी तो नियमित भोजन से सुनिश्चित होती ही है.
बाहर आना-जाना भी शुरू कर दिया था. तीन हवाई यात्रा भी हो गई. सब ठीक-ठाक चल रहा था कि एक दिन पता चला कि कोरोना महोदय अपने यहां भी पधार गए हैं. एक मुख्यमंत्री महोदय के साथ तीन दिन लगातार बैठक में रहना हुआ. दिल्ली लौटने पर पता चला कि वे पॉजिटिव पाए गए हैं. वीआईपी सिंड्रॉम हो गया. बस अपना गला भी खनखनाने लगा. हल्का बुखार हो गया, गले में खराश, वगैरह. टैस्ट कराया तो कंफर्म भी हो गया कि वो अपने अंदर भी प्रवेश कर गया है. स्वयं को पहले से ही आइसोलेट कर लिया था. पंद्रह दिन से एक कमरे में बंद हूं.
चार-चार घंटे बाद तापमान और ऑक्सीज़न लेवल चैक करता रहता हूं. टीवी पर जब खबर आती है कि देश में रिकवरी रेट बढ़ रहा है तो ऑक्सीज़न लेवल भी अपने आप बढ़ जाता है. एक चैनल यह बताता है कि भारत में कोविड का डेथ रेट दुनिया में सबसे कम है. शरीर में स्फूर्ति आ जाती है. दूसरा चैनल बदलते ही खबर आती है कि आईसीएमआर का मानना है कि डेथ रेट का अपना आकलन सही नहीं है, वास्तविक आंकड़े इससे ज्यादा होंगे, दिल एकदम बैठने लगता है.
डाक्टर साहब अपने मित्र हैं. बेहद चिंता करते हैं. वैसे भी वे खबरों के लिए अधिक जाने जाते हैं, मेरी खबर भी लगातार लेते हैं. लेकिन टीवी की खबरों का जाल दिमाग को उलझाने की कोशिश करता है. दो चैनलों के एंकरो में तो यह होड़ लगी हुई है कि रिया को पहले कौन दोषी ठहराता है. सारी जांच एजंसियां उनके हुनर के सामने फीकी पड़ गई हैं. हर थोड़ी देर में उनके पास ब्रेकिंग न्यूज होती है. लेकिन अगले दिन आते-आते सुशांत के फैन्स का दिल ब्रेक हो जाता है. उसकी मृत्यु का राज नहीं खुल पाता है.
इस बीच इधर राज्यसभा में कृषि बिल को लेकर वोटिंग थी. देश के 75 करोड़ किसानों के भविष्य को लेकर. लेकिन दो चैनलों के लिए महत्वपूर्ण था पायल घोष का अनुराग कश्यप पर यौन शोषण का आरोप. लगने लगा है कि कोरोना का वायरस हमारी संवेदनशीलता पर बहुत पहले से ही अटैक कर गया है. उसका इलाज अमेरिका या रूस नहीं ढूंढ पाएंगे. हमारे अपने समाज को ही ढूंढना पड़ेगा. सबसे पहले तो हमें स्वयं को.
(लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं.ये लेखक के व्यक्तिगत विचार हैं.)